वैदिक विचार #1

तत्स॑वि॒तुर्वरेण्यं॒ भर्गो दे॒वस्य॑ धीमहि ।
धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त् ।।

मुझे क्या करना चाहिये क्या नहीं, यह मैं नहीं जानता। किस समय क्या कर्तव्य है क्या अकर्तव्य, क्या धर्म है क्या अधर्म – यह मैं नहीं जान पाता । सुना है कि बड़े-बड़े ज्ञानी भी बहुत वार इस तरह किंकर्तव्यविमूढ़ रहते हैं। पर क्या इसका कोई इलाज नहीं है ? हे सवित: देव ! हमारे उत्पादक देव ! क्या तुमने हमें उत्पन्न करके इस अँधेरे संसार में यों ही छोड़ दिया है? कोई निर्भ्रान्त (निश्चित) प्रकाश हमारे लिए तुमने नहीं दिया है, यह कैसे हो सकता है ? नहीं, तुम अपने अनन्त प्रकाश के साथ सदा हमारे हो । यदि हम चाहें और यत्न करें, तो तुम हमें अपने प्रकाश से आप्लावित कर सकते हो। इसके लिए हम आज से ही यत्न करेंगे और तेरे उस ‘भर्ग’ (विशुद्ध तेज) को अपने में धारण करने लगेंगे जो कि वरणीय है, जिसे कि हर किसी को लेना चाहिये—जिसे कि प्रत्येक मनुष्य जन्म पानेवाले को अपने अन्दर स्वीकार करने की ज़रूरत है । इस तेरे वरणीय शुद्ध स्वरूप का हम जितना श्रवण, मनन, निदिध्यासन करेंगे अर्थात् जितना तेरा कीर्त्तन सुनेंगे, तेरा विचार करेंगे, तेरे में मन एकाग्र करेंगे, तेरा जप करेंगे, तुझमें अपना प्रेम समर्पित करेंगे, उतना ही तेरा शुद्ध स्वरूप हमारे अन्दर धारण होता जायगा । बस, यह ऊपर से आता हुआ तुम्हारा तेज ही हमारी बुद्धि को और फिर हमारे कर्मों को ठीक दिशा में प्रेरित करता रहेगा । इस शुद्ध स्वरूप के साथ तुम ही मेरे हृदय में बस जाओगे और तुम ही मेरे बुद्धि, मन आदि सहित इस शरीर के संचालक हो जाओगे । फिर धर्म-अधर्म की उलझन कहाँ रहेगी ! तुम्हारे पवित्र संस्पर्श से इस शरीर की एक-एक चेष्टा में शुद्ध धर्म की ही वर्षा होगी। इसलिए हे प्रभो ! हम आज से सदा तुम्हारे शुद्ध तेज को अपने में धारण करने में लगते हैं। एक-एक मानसिक विचार के साथ, एक-एक जप के साथ इस तेज का अपने अन्दर आह्वान करेंगे और इस तरह प्रतिदिन इस तेज को अपने में अधिक-अधिक एकत्र करते जाएँगे । निश्चय है कि इस ‘भर्ग’ की प्राप्ति के साथ-साथ धर्म के निश्चय में पटु होती हुई हमारी बुद्धि एक दिन तुम्हारी सर्वज्ञता के कारण पूरी तरह बिल्कुल ठीक मार्ग पर ही चलनेवाली हो जायगी ।