वैदिक विचार #2

उप॑ त्वाग्ने दि॒वे दि॑वे॒ दोषा॑वस्तर्ध॒या व॒यम् । नमो॒ भर॑न्त॒ एम॑सि ।।

ऋ० १।१।७; साम० पू० १।१।२।४
ऋषिः मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः । देवता अग्निः । छन्दः गायत्री ।

जब से हम उत्पन्न हुए हैं, दिन के पश्चात् रात और रात के पश्चात् दिन आता-जाता है । प्रतिदिन एक नया-नया दिन और एक नयी-नयी रात आती-जाती है। इस तरह यह अनवरत अविश्रान्त काल-चक्र चल रहा है। इस काल-चक्र में हम कहाँ जा रहे हैं ? हे मेरे प्रभु अग्निदेव! तुमने तो ये अहोरात्र इसलिए रचे हैं कि प्रत्येक अहोरात्र के साथ अपनी आत्मिक उन्नति का दायाँ और बायाँ पैर आगे बढ़ाते हुए हम प्रतिदिन तुम्हारे निकट-निकट पहुँचते जायँ । यदि हम प्रत्येक अहोरात्र के आरम्भों में अर्थात् प्रात:काल और सायंकाल के समय में अपनी बुद्धि द्वारा तुम्हारे आगे झुकते हुए, नमन करते हुए तथा कर्म द्वारा भी अपने “ नमः” की भेंट तुम्हारे प्रति लाते हुए, तुम्हारे लिए स्वार्थ-त्याग करते हुए चलेंगे तो यह दिन-रात का चक्र हमें एक दिन तुम्हारे चरणों में पहुँचा देगा । इसलिए, हे अग्निरूप परमदेव ! हम आज से निश्चय करते हैं कि हम प्रत्येक अहोरात्र को (प्रात:काल और सायंकाल) अपनी बुद्धि तथा कर्म द्वारा तुम्हें नमस्कार की भेंट चढ़ाते हुए (आत्मसमर्पण व स्वार्थ-त्याग करते हुए) ही अब जीयेंगे और इस तरह जहाँ -प्रत्येक दिन के श्रममय काल में हमारा दायाँ पैर तुम्हारी तरफ बढ़ेगा, वहाँ प्रत्येक रात्रिकाल में हमारी उन्नति का बायाँ पैर उस उन्नति को स्थिर करता जायगा । हे प्रभो ! ये दिन-रात इसीलिए प्रतिदिन आते हैं । निश्चय ही आज से प्रत्येक अहोरात्र हमें तुम्हारे समीप लाता जायेगा । आज से प्रतिदिन हम स्वार्थ त्याग द्वारा पवित्रान्तःकरण होते हए और पवित्रान्तःकरण से प्रात:- सायं तुम्हारी वन्दना करते हुए प्रतिदिन तुम्हारी तरफ आने लगे हैं, हे प्रभो ! प्रतिदिन तुम्हारे समीप आते जा रहे हैं।

शब्दार्थ – अग्ने हे अग्ने ! वयं हम दिवे दिवे प्रतिदिन दोषावस्तः रात और दिन के समय धिया बुद्धि व कर्म से नमो भरतः नमस्कार की भेंट लाते हुए त्वा तेरे उप समीप एमसि आ रहे हैं।