वैदिक विचार #8

सोम॑ गी॒र्भिष्ट्वा॑ व॒यं व॒र्द्धयामो वयो॒विद॑ः ।
सु॒मृळीको न॒ आवंश ।।

ऋषि: रहूगणपुत्रो गोतमः । देवता सोमः । छन्दः निचृद् गायत्री । ।

हे प्रशान्तस्वरूप सोमदेव ! तुम सब जगत् के सार हो प्रकृति के विषयों में फँसा हुआ मनुष्य-संसार तुम्हें नहीं जानता, तुम भी कुछ है नहीं करता । इसलिए हम लोग जिन्होंने तुम्हारी दया से तुम्हारी थोड़ा-बहुत अनुभूति का सुख पाया है, अपना यही कार्य समझते हैं कि पागलों की तरह सब जगह तुम्हारे गुण गाते फिरें-गाते फिरा करें। तुम्हारी भक्ति ने ही हमें “ वचोविद्” भी बना दिया है— तुम्हारी भक्ति से हम वाणी की शक्ति को, रहस्य को जान गए हैं और इस शक्ति का प्रयोग करना भी जान गए हैं, अत: अपनी वाणियों से हम सदा तुम्हारा कीर्तन करते हैं, तुम्हारा यश गाते हैं, तुम्हारे स्वरूप का वर्णन करते हैं । जहाँ विषयग्रस्त मानवी हृदयों ने तुम्हें निकाल रखा है या जहाँ प्रकृतिवाद ने तुम्हारे लिए जगह नहीं रखी है, वहाँ भी तुम्हारा नाम फैलाते हैं, तुम्हें पहुँचाते हैं। मानो तुम्हारे सैनिक बनकर सांसारिक दृष्टि से तुम्हारा राज्य बढ़ाने का यत्न करते हैं। पर, हे देव ! तुम इतना करो कि हमारे अन्दर सात्त्विक सुख के दाता होते हुए सदा प्रविष्ट रहो, बस हम यही चाहते हैं । हम तुच्छ लोग तुझे कहाँ से बढ़ा सकते हैं ! हम तुझे फैलाते हैं, तुम्हारा राज्य फैलाते हैं —— यह कहना कितनी धृष्टता का वचन है ! हे सर्वशक्तिमान् ! हे अनन्त अपार ! असल में तुम ही हमारे अन्दर जितना प्रविष्ट होते हो, उतना ही हममें वह तुम्हारा अवर्णनीय सात्त्विक सुख अनुभूत होता है और उस आनन्द में मस्त होकर हम तुम्हारे गुण गाते फिरते हैं। बल्कि, तब हमारे एक-एक अङ्गसे, हमारी एक-एक हरकत से, तुम्हारा प्रकाश होता है। अतः हमारी प्रार्थना तो यही है कि तुम हमारे अन्दर प्रविष्ट होओ, तुम हमारे में आविष्ट होओ। जितनी मात्रा में तुम हमारे में प्रविष्ट होगे, उतनी ही मात्रा में हमारे द्वारा जगत् में तुम्हारा प्रचार व प्रकाश होगा। हे प्रभो ! इस सात्त्विक सुख से हमें अनुप्राणित करते हुए हममें आविष्ट होओ।


शब्दार्थ – सोम हे सोमदेव ! वयं वचोविदः वाणी के वेत्ता हम लोग त्वा तुझे गीर्भिः अपनी वाणियों द्वारा वर्द्धयामः बढ़ाते हैं । सुमृळीकः अच्छे सुख देनेवाले होते हुए तुम नः आविश हममें प्रविष्ट होओ।